Rajasthan News : लिपिकीय त्रुटि के आगे शासन लाचार

जेडीए के लिपिक की त्रुटि के आगे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनकी सरकार भी बेबस नजर आ रही है। यूं तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत प्रदेश में सुशासन और संवेदनशील सरकार होने का दम भरते हैं, लेकिन अधिकारियों की लचरता के आगे उनके दावे खोखले ही साबित हो रहे हैं। 

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Jagganath Mondal
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Ashok Gehlot

Rajasthan Government helpless

एएनएम न्यूज़, ब्यूरो: हाई कोर्ट (High Court) ने तो अपने आदेश में कभी नहीं कहा कि सरकार और जेडीए प्रदेश में लागू नीति के खिलाफ जाकर कोई काम करे, लेकिन आदेश को पढ़ने और समझने में फेल प्रशासन हाई कोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए 571 निर्दोष परिवारों पर 10 साल से कुठाराघात कर रहा है और हाई कोर्ट को ही बदनाम करने पर आमादा है। 10 साल से जेडीए (JDA) को इतनी सीधी और सरल बात भी समझ नहीं आ रही कि राज्य सरकार के नीति नियमों की पालना करना उसका कर्तव्य है, जिसकी भी उसने अवहेलना की है। इधर, जेडीए के लिपिक की त्रुटि के आगे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Chief Minister Ashok Gehlot) और उनकी सरकार (Rajasthan Government) भी बेबस नजर आ रही है। यूं तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत प्रदेश में सुशासन और संवेदनशील सरकार होने का दम भरते हैं, लेकिन अधिकारियों की लचरता के आगे उनके दावे खोखले ही साबित हो रहे हैं। 

प्रदेश सरकार के प्रशासन की लचरता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले बुद्धिजीवी पत्रकारों को ही बिना किसी गलती के 10 साल से न्याय के लिए धकियाया जा रहा है तो असहाय, गरीब आमजन का तो भगवान ही मालिक है। मुख्यमंत्री की जन कल्याण की मंशा को पलीता लगा रहे अधिकारी उनके राज्य में सरकार रिपीट करने के सपनों को भी चकनाचूर करके ही दम लेंगे। मामला साल 2013 में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ड्रीम प्रोजेक्ट पत्रकार नगर नायला का है। सभी जानते हैं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की प्रदेश में जारी पत्रकार आवास नीति के अनुसार 5 वर्ष की पत्रकारिता का अनुभव रखने वाले पत्रकारों को प्रदेश भर में भूखंड दिए गए हैं। इस नीति में कभी भी अधिस्वीकृत पत्रकार होने की पात्रता नहीं रखी गई थी। लेकिन सरकार के आदेशों और नीतियों की धज्जियां उड़ाने में अव्वल जेडीए 10 साल से 571 आवंटी पत्रकारों से अधिस्वीकरण का प्रमाण पत्र मांग रहा है। लचरता की हद है कि न तो आवेदन के समय और न ही चयन के समय इस प्रमाण पत्र की आवश्यकता थी और न ही चयन में सफल 571 आवेदकों की भूखंड आवंटन के समय इसकी आवश्यकता थी, लेकिन लॉटरी से भूखंड आवंटन के बाद कब्जा पत्र देते समय यह प्रमाण पत्र जरूरी बता दिया गया। आवेदकों से पंजीयन राशि भी वसूल ली गई और लॉटरी से आवंटित प्लॉटों की सूची भी आज दिन तक जेडीए की वेबसाइट पर मौजूद है। सरल भाषा में यूं कहें कि स्नातक योग्यताधारी आवेदकों से शिक्षक भर्ती परीक्षा में आवेदन, परीक्षा, चयन और स्कूल आवंटन होने के बाद पीएचडी की डिग्री मांग ली जाए तो इसे अनीति, अन्याय की कौनसी श्रेणी में माना जाएगा। जेडीए के विधि अधिकारी साल 2013 में भी कोर्ट को बताकर आए थे कि अधिस्वीकरण का प्रमाण पत्र जरूरी नहीं है। राज्य सरकार के आदेश के विरुद्ध यह लिपिकीय त्रुटि से ब्रोशर में अंकित हो गया है। आज भी जेडीए के विधि अधिकारियों ने लिखा है कि इस लिपिकीय त्रुटि को हटाकर 571 आवंटियों को प्लॉट दिए जा सकते हैं, लेकिन स्वयं जेडीसी सरकार को भरमा रहे हैं कि अधिस्वीकरण के बिना प्लॉट नहीं दे सकते। सबसे अधिक मजेदार ये है कि सरकार की भी इतनी हिम्मत नहीं कि जेडीसी को कह सके कि हमने पत्रकार आवास के लिए जो नीति बनाई थी और जेडीए को जो आदेश दिए थे, उसमे तो कभी भी अधिस्वीकरण की अनिवार्यता नहीं रखी थी। सभी अड़चनों के लिए हाई कोर्ट नाम लेकर उसे ही बदनाम किया जा रहा है, जबकि हाई कोर्ट ने तो साल 2013 में ही 15 दिन में विधिसम्मत, नीतिगत कार्यवाही के  निर्देश देकर मामले की हमेशा के लिए बंद कर दिया था। 15 दिन के बाद 10 साल निकल गए, 571 निर्दोष आवंटी पत्रकारों के साथ अन्याय बदस्तूर जारी है। वाह रे, गहलोत सरकार। अनीति की पराकाष्ठा इसे ही कहा जाएगा।